बचपन में बाल कटाने जाते थे तो लकड़ी की दुकान पर लकड़ी की कुर्सी पर बैठाकर बाल काटते थे। उन वक्त ज्यादातर दुकानों में आम तौर पर पर्दे नहीं होते थे। शीशे भी एक होते थे और कारीगर भी एक। मतलब साफ है रविवार का दिन और इतनी भीड़ होती थी कि लाइन लगाना लाजमी था। फर्जी करिए आज के युग में कहीं लाइन लगी होगी तो सबके सर नीचे झुके होंगे, दाहिनी पॉकेट से उनकी चमचमाती स्क्रीन निकल चुकी होगी। लेकिन उस जमाने में मोबाइल फोन हुआ कहां करते थे।
ऐसे में अपने आस पड़ोस के हमउम्र के बच्चों की बीच बातचीत शुरू होते थी। चाचा लोग अपने मित्र यारों से अपनी बातचीत शुरू करते थे। एक लोग अखबार लेकर बैठ जाते थे और हैडलाइन सुनाया करते थे। साथ में उनकी अपनी समझ के अनुसार एक बेहतरीन विश्लेषण भी मौजूद होता था। हम उस वक्त की बात कर रहे हैं जब एक लकड़ी नुमा दुकान में हम बाल कटवाते थे। एक लोग जिसका बाल काटता था वह दुकान के अंदर मौजूद होता था बाकी लोग दुकान के बाहर इर्द-गिर्द घूमते रहते थे। एक बेफिक्री वाला संडे होता था।
काठ की दुकान बदलकर सीमेंटेड दुकान हो गई। शीशे एक की जगह दो हो गए, कुर्सियां भी एक की जगह दो हो गई। दो कारीगर भी आ गए। सर के ऊपर पंखा आ गया और साइड में एक बेंच आ गई जिस पर लोग बैठा करते थे। यह वह दौर था जब सैलून में बढ़िया म्यूजिक सिस्टम का चलन आया था। दिल है की मानता नहीं, दिल का आलम सरीखे गानों की जबरदस्त डिमांड थी। एक से बढ़कर एक गाने रिपीट मोड पर चलाए जाते थे। वह फटाफट बदलने वाला जमाना नहीं था ना। ऑडियो कैसेट था जिसमें साइड ए और साइड बी पूरा मिलकर बस 10 गाने हुआ करते थे। कहीं ना कहीं ऑडियो कैसेट हमें धैर्यवान बनना सिखाता था। एक गाने पूरे बज जाने दो तभी दूसरा चलेगा। आजकल तो व्यक्ति इतना अधीर है कि मुखड़ा सुनने से पहले आखिरी अंतरे पर जाने की कोशिश करने लगता है।
फिर आया सैलून में टीवी लगाने का चलन। यहां तक भी व्यक्ति सामूहिक रूप से कोई एक चीज ही देखता था। जो भी टीवी स्क्रीन पर चल रहा हो। सैलून वाले क्रिकेट के दीवाने होते थे ज्यादातर टाइम सैलून के टीवी सेट पर क्रिकेट मैच ही चला करते थे। अगर क्रिकेट मैच ना आ रहा हो तो फिर कोई गाने का चैनल चलता था। मतलब कुल मिलाकर गाने और सैलून एक ही सिक्के के दो पहलू थे।
इसके बाद भी धीरे-धीरे करके सैलून अपने आप को समय के अनुसार बदलते गए। आजकल के सैलून किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं लगते हैं। एक सैलून जो पूरी तरीके से पर्दों से ढका है। हर केबिन अपने आप में एक अकेला स्पेस है। सैलून के मालिक कहते है मेरे सैलून में प्राइवेट स्पेस है जहां पर आपको और आपके हेयर स्टाइलिस्ट को औरों के बीच में रहने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
इतना सब होने के बावजूद भी अगर व्यक्ति यह सोचता है कि अकेलापन किसी को अवसाद में डाल सकता है। तो फिर इतनी आधुनिकता आखिर किस काम की है कि व्यक्ति व्यक्ति से बात करना ही बंद कर दे। आजकल लोग अपने आप में इतने खो गए हैं कि उनके अगल-बगल क्या घटित हो रहा है इससे उनका कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह महज सैलून का किस्सा नहीं है पूरे दिन भर की रूटीन में आप एक बार इस बात पर गौर करिएगा। वास्तव में अवसाद की जड़ व्यक्ति का एकीकरण ही है, जिस व्यक्ति अपने व्यस्तता के परदे के पीछे छिपा देता है।
सोचिएगा।
राहुल मिश्रा
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश