यह किस्सा सबने सुना जरूर होगा। जब श्री कृष्ण हस्तिनापुर आते हैं। वह पांडवों के दूत बनकर भरे दरबार में कहते हैं कि उन्हें सिर्फ पांच गांव दे दीजिए। पांडव उन्हीं पांच गांवो को लेकर शांतिपूर्वक संतुष्ट हो जाएंगे। परंतु हठी दुर्योधन देने से इंकार कर देता है और भगवान श्री कृष्ण को बंदी बनाने की मूर्खता कर देता है। उसके बाद क्या होता है वह सब जानते ही हैं।
अधिपति तीनों लोक के, खाये विदुर घर साग।
स्वाद भरा था प्रेम का, साग बना अनुराग।।
पर यह लेख थोड़ा दूसरी ओर ले जाता हुआ है। जब दुर्योधन को यह संदेश मिलता है की वासुदेव आ रहे हैं तो वह उनके लिए तरह तरह के पकवान, मिठाइयां, मेवे और फल की तैयारियां शुरू करने का आदेश दे देता है। वासुदेव के अतिथि सत्कार के लिए गंगा पुत्र भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को साथ चलने के लिए आग्रह करता है। भगवान श्री कृष्ण दुर्योधन के निमंत्रण देने पर जब उसके महल की तरफ जा रहे थे। तभी दुर्योधन के मन में विचार आया कि भगवान मेरे घर तब आए, जब कोई न देखे। दुर्योधन के मन में अहंकार था कि मैं इतना बड़ा राजा, एक दूत की अगवानी करूंगा तो प्रजा के सामने मेरा मान कम हो जाएगा। भगवान श्री कृष्ण दुर्योधन के इस मनोभाव को जानकर अपने रथ के घोड़ों का मुंह विदुर के घर की तरफ मोड़ देते हैं।
उधर विदुरानी श्री कृष्ण को अपने घर आता देख भाव विह्वल हो जाती हैं। विदुर के घर पहुंचने पर श्री कृष्ण के भक्ति में लीन विदुरानी भगवान को केले छीलकर छिलके खिलाने लगती हैं। इसी समय विदुर पहुंचते और वो देखते हैं कि विदुरानी भगवान को छिलके खिलाते जा रही हैं और गुदा फेंक रही है। इसपर प्रेमपूर्वक वह भगवान को केले का गूदा खिलाने की कोशिश करने लगते हैं। भगवान श्री कृष्ण इस पर मना करते हुए कहते हैं कि जो आनंद छिलके में है वह इस गूदे में कहां। विदुर जी तो अपने पूरे होश में थे। जो प्रेम विदुरानी के हृदय में था। वह विदुर जी में नहीं था। प्रभु के प्रेम में विदुरानी अपने तन की सुधि भूल चुकी थी। प्रभु के प्रेम में समर्पित होकर उनकी सेवा करने लगती हैं।
दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर खाया। इधर भगवान के विदुर के घर जाने से आहत दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है कि मेरे 36 प्रकार के भोजन को छोड़कर आप दासी के पुत्र के घर भोजन करने चले गये। यह कहां कि बुद्धिमता है। आप तो ग्वाले के ग्वाले ही रह गए। वैसे ही आपकी बुद्धि है।
तब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि "हे राजन कोई किसी के यहां भोजन करने तभी जाता है, जब उसके प्रति या तो अनंत प्रेम हो या फिर उसके घर पर कोई बड़ी आपदा आई हो।" ऐसे में हमारे पर ना तो भोजन की कोई आपदा आई है, जिससे मैं आपका भोजन मांगकर खाऊं और ना ही तुम्हारे दिल में मेरे प्रति प्रीत की कोई जगह है जिससे की मैं खुशी से तुम्हारे यहां भोजन करूं।
तुमरे प्रीति न, हमरे आपदा, यही बड़ी अनरीति।
मेरे लिए तो जो भगत है। वह गरीब हो या अमीर। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं भक्तन का दास, भगत मेरे मुकट मणि।
राहुल मिश्रा
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश।