बचपन से अभी तक जिम्मेदारी रूपी शब्द मेरे समक्ष दो बिलकुल विपरित चरित्र के साथ मौजूद रहा है। जिम्मेदारी सकारात्मक दृष्टिकोण से भी होती और नकारात्मक से भी। व्यक्ति विशेष के मनोभाव से अंदाजा लग जाता है कि जिम्मेदारियों को वह किस स्वरूप में ओढ़ना चाह रहा है। परिस्थितियों के मकड़ जाल में जिंदगी को जीना ही जिम्मेदारी है। बस वह मकड़जाल जिंदगी की बनाई हुई है या आपने भी उसमे कुछ योगदान दिया है, इसी पर निर्भर करती हैं आपकी सोच और मानसिकता।
एक कथन से मैं ताल्लुक बिलकुल नहीं रखता कि "बड़े होने पर जब तुम्हारे पर जिम्मेदारी आएगी तो पता चलेगा तुम्हे जिंदगी क्या है।" यह कथन हर मध्यम वर्ग के परिवारों में एक भविष्य के प्रति भय व्याप्त करने के आसय से बोला ही जाता है। परंतु मुझे लगता है कि जन्म लेते ही बच्चे को जिंदगी थोड़ी थोड़ी ज़िम्मेदारियां देती रहती है। जैसे भूख लगने पर रोना, बैठने से पहले तैयारी करना, चलने के लिए गिरना। इन सभी के लिए किसी बच्चे को तंग नहीं किया जाता, जिंदगी अपने आप ही उसे धीरे धीरे सिखाते जाती है। साथ ही परिवार भी उसके गिरने पर, न ही उसका मजाक नहीं बनाता और न ही उसे हतोत्साहित करता। जिससे छोटा बच्चा समय लेकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है। वह बच्चा सिर्फ इसलिए खड़ा नहीं होता कि उतने छोटे से उम्र में उसे जिम्मेदारी लेने की बड़ी काबिलियत है। बल्कि वह सबके मानसिक सहयोग और घर के सकारात्मक माहौल से खड़ा होता है।
समय बढ़ता है बच्चा बड़ा होता है। तो अचानक उसके अंदर धीरे धीरे एक प्रतियोगिता वाली भावनाएं जन्म लेने लगती है। यही से शुरू हो जाती है उसके जिंदगी की रेस। एक बिलकुल छोटा बच्चा प्ले वे में 4 साल बिताता है। फिर स्कूलिंग में 12 साल। फिर ग्रेजुएशन में 3 या 4 साल फिर पोस्ट ग्रेजुएशन में 2 या 3 साल। कुल मिलाकर 20 से 22 साल में वह एक रेस का घोड़ा बनकर निकलता है या फिर हरा हुआ हताश घोड़ा। यहीं से फैसला हो जाता है कि वह जीवन में कुछ आगे कर पाएगा या नहीं। मतलब जिस रेस की तैयारी हम लोगों ने दसवीं के बाद शुरू की थी। वर्तमान समय के अभिवावक उसे प्लेवे से ही शुरू कर दे रहे हैं। कमाल का सुपर कम्प्युटर तैयार कर रहे हैं ये लोग।
जिम्मेदारियों के शब्द के पीछे यह मध्यम वर्गीय परिवार अपने रिश्तेदारों में, पट्टीदारों में, अपने मुहल्ले में और अपने उठने बैठने वाले समाज में अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपने बच्चों पर अतिरिक्त बोझ दे रहा है। यहीं कारण है छोटी उम्र में ही बच्चे मधुमेह, थायराइड, उच्च रक्तचाप जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो जा रहे हैं।
कुछ बच्चो नें तो असफलता कभी देखी नहीं वह एक छोटी सी असफलता को लेकर ही इतने प्रभावित हो जा रहे हैं कि आत्महत्या जैसे कुकृत्य को अभी अपना ले रहे हैं।
सोचिएगा ये कैसी जिम्मेदारी है जो किसी को जान ले ली रही है। और इसका उत्तरदायी हैं हम, हमारा परिवेश और हमारा समाज।
- राहुल मिश्रा
गोरखपुर,उत्तर प्रदेश